Friday, November 19, 2010

जी चाहता है.


कभी अपनी हँसी पर आता है गुस्सा 
कभी सारे जहाँ को हँसाने को जी चाहता है .

कभी छुपा लेता है गमों को किसी कोने मे ये दिल 
कभी किसी को सब कुछ सुनने को जी चाहता है.

कभी रोता नही मान किसी कीमत पर  
कभी यूँ ही आँसू बहाने को मन करता है.

                       कभी अछा लगता है आज़ाद उड़ना
                       कभी किसी बंधन मे बँध जाने को जी चाहता है.

                       कभी लगते है अपने बेगाने से
                       कभी बेगानों को अपना बनाने को जी चाहता है.

                       कभी उपर वाले का नाम नही आता ज़ुबान पर ,
                       कभी उसको मनाने को जी चाहता है.

                       कभी लगती है ये जिंदही बड़ी सुहानी 
                       कभी जिंदगी से उठ जाने को जी चाहता है.



Wednesday, November 17, 2010

आकाश सी छाती

                            आकाश सी छाती

                           
                               इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
                               नाव जर्जर ही सहीलहरों से टकराती तो है।

                                    एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
                               इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

                               एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
                               आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

                               एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
                               यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

                               निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
                               पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

                               दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
                               और कुछ हो या हो, आकाश-सी छाती तो है।



Monday, November 15, 2010

नफ़रत

नफ़रत
देखो, तो अब भी कितनी चुस्त-दुरुस्त और पुरअसर है
हमारी सदी की नफ़रत,
किस आसानी से चूर-चूर कर देती है
बड़ी-से-बड़ी रुकावटों को!
किस फुर्ती से झपटकर
हमें दबोच लेती है!

यह दूसरे जज़्बों से कितनी अलग है --
एक साथ ही बूढ़ी भी और जवान भी।
यह खुद उन कारणों को जन्म देती है
जिनसे पैदा हुई थी।
अगर यह सोती भी है तो हमेशा के लिए नहीं,
निद्राहीन रातें भी इसे थकाती नहीं,
बल्कि और तर-ओ-ताज़ा कर जाती हैं।





यह मज़हब हो या वह जो भी इसे जगा दे।
यह देश हो या वह जो भी इसे उठा दे।
इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है
जब तक नफ़रत इसकी दिशा नहीं बदल देती।
आपने देखा है इसका चेहरा
-- कामोन्माद की विकृत मुद्राओं वाला चेहरा।

ओह! दूसरे जज़्बात इसके सामने
कितनी कमज़ोर और मिमियाते हुए नज़र आते हैं।
क्या भाई-चारे के नाम पर भी किसी ने
भीड़ जुटाई है?
क्या करुणा से भी कोई काम पूरा हुआ है?
क्या संदेह कभी किसी फ़साद की जड़ बन सका है?
यह ताक़त सिर्फ़ नफ़रत में है।
ओह! इसकी प्रतिभा!
इसकी लगन! इसकी मेहनत!

कौन भुला सकता है वे गीत
जो इसने रचे?
वे पृष्ठ जो सिर्फ़ इसकी वजह से
इतिहास में जुड़े!
वे लाशें जिनसे पटे पड़े हैं
हमारे शहर, चौराहे और मैदान!

मानना ही होगा,
यह सौंदर्य के नए-नए आविष्कार कर सकती है,
इसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि है।
आकाश के बीच फूटते हुए बमों की लाली
किस सूर्योदय से कम है।
और फिर खंडहरों की भव्य करुणा
जिनके बीच किसी फूहड़ मज़ाक की तरह
खड़ा हुआ विजय-स्तंभ!

नफ़रत में समाहित हैं
जाने कितने विरोधाभास --
विस्फोट के धमाके के बाद मौत की ख़ामोशी,
बर्फ़ीले मैदानों पर छितराया लाल खून।

इसके बावजूद यह कभी दूर नहीं जाती
अपने मूल स्वर से
ख़ून से सने शिकार पर झुके जल्लाद से।
यह हमेशा नई चुनौतियों के लिए तैयार रहती है
भले ही कभी कुछ देर हो जाए
पर आती ज़रूर है।
लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
अंधी! और नफ़रत!
इसके पास तो जनाब, बाज की नज़र है
निर्निमेष देखती हुई भविष्य के आर-पार
जो कोई देख सकता है
तो सिर्फ़ नफ़रत।

Originally Written by Poland poet  विस्साव शिंबोर्स्का

Monday, November 8, 2010

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को


कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।

कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को

Friday, November 5, 2010

मधुशाला

कुछ पंक्तिया मधुशाला की जो मुझे बहुत रचनात्मक लगती है


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालो किसी दिन मदिरालय मे देखो
दिन को होली रत दीवाली रोज़ मनाती मधुशाला

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ , दिखलाई  देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई  देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला ,
ठुकराया गुरुद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफ़िर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
 देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला,
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाती के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।