Friday, November 5, 2010

मधुशाला

कुछ पंक्तिया मधुशाला की जो मुझे बहुत रचनात्मक लगती है


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालो किसी दिन मदिरालय मे देखो
दिन को होली रत दीवाली रोज़ मनाती मधुशाला

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ , दिखलाई  देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई  देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला ,
ठुकराया गुरुद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफ़िर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
 देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला,
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाती के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।

1 comment:

  1. याद है, जब मधुशाला पढ़ने बैठा था, एक साँस में ही पढ़ गया था।

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